बारिश के बाद आज आकाश बिल्कुल साफ है. प्रदूषण का नामोनिशान नहीं है ठंडी ठंडी हवाएं बह रही है.और उस पर से चांदनी रात अपने पूरे शबाब पर. चांद दूधिया रोशनी बिखेरता खूबसूरत नजारा पेश कर रही है.जिंदगी जब थम चुकी है मानव अपने घरों में कैद है. प्रकृति नित्य नए रूप दिखला रही है. चांद तो पहले भी था और चांदनी रात भी. परंतु इतना साफ और चमकता चांद हमें बचपन की याद दिला रही है. जब हम गांव में होते थे प्रदूषण ना के बराबर होता था .तब चांदनी रात में इसी तरह का नजारा देखने को मिलता था .
प्रकृति की इस खूबसूरती को अपलक निहारते हुए चांद की रोशनी आंखों में बसा लेने का मन करता है .आज हमें लग रहा है कि इस धन दौलत के चक्कर में मनुष्य ने क्या क्या खो दिया. प्रकृति का यह नैसर्गिक सौंदर्य जो किसी दौलत से नहीं खरीदी जा सकती. विचारों का बेग अपने चरम पर है.जीवन का यह अनमोल पल है .चांद की जिस खूबसूरती का वर्णन किताबों कहानियों और फिल्मों में हम देखते थे. आज वह साक्षात आप खुद महसूस कर सकते हैं.प्रकृति का यह शांत निर्मल रूप किसी औषधि से कम नहीं है. यही छोटी-छोटी चीजें हमें परम शांति प्रदान कर नवीन ऊर्जा से सराबोर कर देती है.
इस मुश्किल घड़ी में जब दुनिया कोरोना रूपी वैश्विक महामारी से जूझ रहा है तब प्रकृति मुस्कुरा रही है हमें तो लगता है यह प्रकृति का इशारा है, संपूर्ण मानव के लिए अब तो मानव को सोचना चाहिए कि अपनी विकास यात्रा में वाह कितना कुछ खो चुका है. क्यों विकास प्रकृति एक दूसरे के विरोधी है?? ऐसा नहीं हो सकता कि प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर विकास के पथ पर मानव अग्रसर हो सके.
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प्रकृति की इस खूबसूरती को अपलक निहारते हुए चांद की रोशनी आंखों में बसा लेने का मन करता है .आज हमें लग रहा है कि इस धन दौलत के चक्कर में मनुष्य ने क्या क्या खो दिया. प्रकृति का यह नैसर्गिक सौंदर्य जो किसी दौलत से नहीं खरीदी जा सकती. विचारों का बेग अपने चरम पर है.जीवन का यह अनमोल पल है .चांद की जिस खूबसूरती का वर्णन किताबों कहानियों और फिल्मों में हम देखते थे. आज वह साक्षात आप खुद महसूस कर सकते हैं.प्रकृति का यह शांत निर्मल रूप किसी औषधि से कम नहीं है. यही छोटी-छोटी चीजें हमें परम शांति प्रदान कर नवीन ऊर्जा से सराबोर कर देती है.
इस मुश्किल घड़ी में जब दुनिया कोरोना रूपी वैश्विक महामारी से जूझ रहा है तब प्रकृति मुस्कुरा रही है हमें तो लगता है यह प्रकृति का इशारा है, संपूर्ण मानव के लिए अब तो मानव को सोचना चाहिए कि अपनी विकास यात्रा में वाह कितना कुछ खो चुका है. क्यों विकास प्रकृति एक दूसरे के विरोधी है?? ऐसा नहीं हो सकता कि प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर विकास के पथ पर मानव अग्रसर हो सके.
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